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१८ मई, १९६६
क्या तुमने इन स्वापक औषधियोंके बारेमें सुना है? '... तुमने कुछ चित्र देखे हैं?... मैंने चित्र देखे हैं । लनेग बिना किसी सुरक्षाके निम्नतम प्राणमें फेंक दिये जाते हैं और अपनी प्रकृतिके अनुसार उसे भयानक या अद्भुत पाते है । उदाहरणके लिये, कोई गद्दी या कुरसीपोश अचानक अद्भुत रूपसे सुन्दर बन जाता है । यह दो-तीन घंटोंतक रहता है । वे सारे समय स्वभावतः, होशमें नहीं रहते । खेदकी बात तो यह है कि लोग इसे ''आध्यात्मिक अनुभूति'' कहते हैं और ऐसा कोई नहीं जो उनसे कह सके कि इसका आध्यात्मिक अनुभूतिसे कोई संबंध नहीं ।
कुछ समय पहले मेरे पास किसीकी चिट्ठी आयी थी । उसने लिखा था : ''मैंने ये स्वापक औषधियां ली थीं और उससे बड़े भयंकर अंतर्दर्शन हुए, कमरेकी दीवारें हज़ारों अशुभ और निराशाजनक चेहरोंसे सजीव ले उठी और राततक तंग करती रहीं ।'' तो यह हाल है !
१माताजी एरल० एस० डी० की बात कर रही थीं ।
३१ लेकिन आखिर, इसने मुझे एक और प्रमाण दिया... । मैंने ''लाइन'' पत्रिकामें कुछ चित्र देखे । देखकर ऐसा लगता था मानों तुम पागलखानेमें आ गये हो । ये अवचेतनामें अंकित बिंब होते हैं -- विचारोंके बिंब, संवेदनोंके बिंब, भावनाओंके बिंब जो अवचेतनामें अंकित रहते हैं -- वे यथार्थ हो उठते हैं, जो ऊपरी तलपर आकर यथार्थ बन जाते हैं । इस भांति वे अंदर जो हैं उसका ठीक-ठीक चित्रण करते हैं ।
उदाहरणके लिये, अगर तुम्हारे अंदर यह विचार या यह भाव हों कि अमुक व्यक्ति दुष्ट या हास्यास्पद है या तुम्हें नहीं चाहता, संक्षेपमें कहे तो इसी प्रकारकी चीजें साधारणत: स्वप्नमें सिर उठाती है । लेकिन यहां तुम सोये हुए नहीं होते, फिर भी, स्वप्न आते है! वे तुम्हारे सोचे हुए रवेलको खेलनेके लिये आ जाते हैं । तुमने उनके बारेमें जो सोचा है वह तुम्हारे ऊपर उन्हींकी रूपमें आकर गिरता है । यह एक सूचक है : जो लोग, प्रसन्न, सौम्य, सुन्दर बिंब देखते है उसका मतलब यह होता है कि उनके अंदर प्राणकी दृष्टिसे सब कुछ ठीक चल रहा है, लेकिन जो भयानक या अशुभ चीजें या इसी प्रकारकी और चीजें देखते है उनके लिये इसका मतलव होता है कि उनका प्राण सुखद नहीं है ।
हां, लेकिन क्या कोई तटस्थ प्राण नहीं होता जहां इन अंतर्दर्शनोंका हमारी अपनी अवचेतनाके साथ कोई संबंध नहीं होता?
हां, है तो, पर उसके गुण ऐसे ही नहीं होते ।
ऐसे ही गुण नहीं होते?
व्यक्ति उसे तबतक नहीं जान सकता जबतक कि वह प्राणमें पूरी तरह सचेतन रूपसे न जाय -- अपने प्राणके बारेमें सचेतन हो और प्राणिक जगत् के बारेमें भी उसी तरह सचेतन हों जैसे भौतिक जगत् के बारेमें सचेतन होता है । व्यक्ति वहां सचेतन रूपसे जाता है । यह स्वप्न नहीं होता, उसकी प्रकृति स्वप्नकी नहीं होती; यह एक क्रियाकी तरह है, पक अनुभूतिकी तरह है और यह बिलकुल भिन्न है ।
लेकिन ऐसे प्राणिक जगत् भी तो है जहां व्यक्तिको यंत्रणा दी जाती है, भयानक, उत्पीड़क लोक भी तो होते हैं न?
३२ ९०%आत्मनिष्ठ ।
१०%आत्मनिष्ठ । एक वर्षसे अधिकतक मैं नियमित रूपसे हर रात एक निश्चित समयपर, एक ही तरहसे कोई विशेष काम करनेके लिये प्राणमें प्रवेश किया करती थी । यह मेरी अपनी इच्छाका परिणाम नहीं था । यह करना मेरे लिये नियत था । यह एक ऐसा काम था जिसे मुझे करना ही था । उदाहरणके लिये, प्राणके इस प्रवेशका वर्णन प्रायः किया गया है, एक रास्ता है जहां सत्ताएं खड़ी की गयी हैं ताकि वे तुम्हें अंदर घुसनेसे रोकों (गुह्यविद्याकी पुस्तकोंमे इनके बारेमें बहुत कुछ कहा गया है) । हां तो, मैं (सरसरे अनुभवसे नहीं), बार-बार अनुभवसे जानती हु कि यह विरोध या दुर्भावना नब्बे प्रतिशत मनोबैज्ञानिक है । यानी, अगर तुम पहलेसे इसके बारेमें न सोचों, या उससे न डरो, तुम्हारे अंदर कोई ऐसी चीज न हो जो अज्ञातसे डरती है, आशंका और भयकी गतियां न हों तो यह चित्रपर छायाकी नियराई या किसी बिंबके प्रक्षेपणके जैसा होता है । इसमें कोई ठोस वास्तविकता नहीं होती ।
यह सच है कि किसी भटके हुए व्यक्तिको बचानेके लिये मुझे दो-एक बार सच्चे प्राणिक युद्ध करने पड़े थे । और दो बार मुझे चोटें लगी थी और अगले दिन जब मैं जागी तो एक निशान भी था (माताजी दाहिनी आंख दिखाती हैं) । हां, तो इन दो घटनाओंमें, मेरे अंदर ही कोई चीज थी; डर नहीं; क्योंकि मैं कभी नहीं डरी, मैंने पहलेसे इसकी प्रत्याशा की थी । यह विचार कि ''ऐसा हो सकता है'', यह तथ्य कि मैं उसकी आशा कर रही थी, यही कारण था कि मुझे आघात लगा । मुझे यह निश्चित रूपसे मालूम था । अगर मैं अपनी आंतरिक निश्चितिकी ''सामान्य स्थिति'' में होती तो यह मुझे छू भी न पाती, यह हरगिज न कर पाती । मुझे यह आशंका थी क्योंकि मैं एक गुह्यवादी महिलाको जानती थी, उसने मुझे बतलाया था कि एक प्राणिक युद्धमें उसकी एक आरव जाती रही थी और इस तरह (हंसते हुए) मेरे अंदर यह विचार आया कि चुकी उसके साथ ऐसा हों चुका है, इसलिये ऐसा हो सकता है । लेकिन जब मैं स्वयं अपनी स्थितिमें होती हू -- मैं ठीक यह भी नहीं कह सकती, यह ''व्यक्तिगत' ' नहीं है, यह सत्ताकी एक अवस्था है -- जब व्यक्ति सच्ची स्थितिमें होता है, जब वह सचेतन सत्ताकी सच्ची चेतनामें होता है तो यह चीज उसे C भी नहीं ''सकती'' ।
यह ऐसा अनुभव है जैसे तुम शत्रुसे मीलों और उसपर प्रहार करना चाहो और तुम्हारी चोटें उसे छूतक न पायें, तुम जो कुछ भी करो उसका
३३ कोई असर न हों - यह हमेशा आत्मनिष्ठ होता है । मेरे पास इसके पूरे प्रमाण हैं, पूरे प्रमाण है ।
लेकिन वस्तुनिष्ठ बात क्या है?
जगत् हैं, सत्ताएं हैं, शक्तियां हैं, उनका अपना अस्तित्व है, लेकिन मैं जो कह रही हु उसका मतलब यह है कि मनुष्यकी चेतनाके साथ उनका संबंध, वे ओ रूप लें, इस मानव, चेतनापर निर्भर है ।
देवोंके साथ मी यही बात है, मेरे बालक, एक ही बात है । अधिमानसकी ये सब सत्ताएं_, ये सभी देवता, उनके साथ संबंध, इन संबंधोके रूप मानव चेतनापर निर्भर होते हैं । हो सकता है... यह कहा गया है : ''मनुष्य देवोंके लिये पशु हैं ।', लेकिन तभी जब मनुष्य उनका पशु होना ''स्वीकार करे'' । मानव प्रकृतिके सारतत्वमें सभी वस्तुओंपर प्रभुता होती है, यह तब सहज और स्वाभाविक होती है जब कुछ विचार और तथा- कथित शान उसे झुठला न दें ।
हम कह सकते है कि मनुष्य अपनी प्रकृतिकी सत्ताकी सभी अवस्थाओंका सर्वशक्तिमान स्वामी है, लेकिन वह यह होना भूल गया है ।
सर्वशक्तिमान होना उसकी स्वाभाविक स्थिति है-- लेकिन वह सर्व- शक्तिमान होना मुल गया है ।
इस विस्मृतिकी अवस्थामें हर चीज ठोस बन जाती है, हां, इस अर्थमें कि वह आंखपर एक निशान छोड़ सकती है । वह अपने-आपको इस रूपमें अनूदित कर सकता है -- लेकिन यह इसलिये क्योंकि... ढ़यक्तिने ऐसा होने दिया है ।
देवताओंके साथ भी यही बात है । वे तुम्हारे जीवनपर शासन कर सकते है और तुम्हें बहुत कष्ट दे सकते है (वे तुम्हारी बहुत सहायता भी कर सकते हैं), लेकिन ''तुम्हारे संबंधमें'', मानव सत्ताके संबंघमें उनकी शक्ति वही है जो तुम उन्हें देते हो ।
यह ऐसी चीज है जिसे मैंने धीरे-धीरे बरसोमें सीखा है, लेकिन अब मैं इसके बारेमें निश्चित हू ।
स्वभावत: विकास-चक्रके लिये यह जरूरी था कि मनुष्य अपनी सर्वशक्तिमत्ताको भूल जाय, क्योंकि इसके कारण वह गर्व और मिथ्याभिमानसे फूल उठा था और इस तरह पूर्णतया विकृत हों गया था । यह जरूरी था कि उसे यह अनुभव कराया जाय कि बहुत-सी चीजें उससे ज्यादा बल- वान्, उसे ज्यादा शक्तिशाली है । लेकिन यह तत्वत: सत्य नहीं है । यह विकास-क्रमकी एक आवश्यकता है । बस ।
३४ मनुष्य अपनी संभाव्यतामें देवता है । उसने अपने-आपको वास्तविक देव मान लिया । उसे यह सीखनेकी जरूरत थी कि वह धरतीपर रेंगते हुए एक बेचारे कीडेसे बढ़कर कुछ नहीं है । इसलिये जीवन उसे घिसता, घिसता गया, घिसता गया, हर प्रकारसे घिसता गया जबतक कि वह.. समझा तो नहीं, पर कम-से-कम इस बातको उसने थोड़ा अनुभव तो कर किया । लेकिन जैसे ही वह ठीक वृत्ति अपनाता है, वह जान लेता है कि वह संभाव्यतामे देवता है । केवल उसे देवता बनना है, यानी, जो कुछ दैव नहीं है उसपर विजय पानी है ।
देवोंके साथ यह संबंध बड़ा ही मजेदार है... । जबतक मनुष्य इन दैवी सत्ताओंके आगे उनकी शक्ति, सौंदर्य, प्रवीणता, उपलब्धि आदिके लिये अहंभावके साथ चौंधियाया हुआ खड़ा रहता है तबतक वह उनका दास रहता' है । लेकिन जब वह इन्हें परम पुरुषकी भिन्न प्रकारकी सत्ताएं -- इससे बढ़कर कुछ नहीं--मान लेता है और अपने-आपको भी परम पुरुषकी एक और प्रकारकी सत्ता मानता है और यह जान लेता हैं कि मुझे भी वही बनना है तो संबंध बदल जाते है । उसके बाद वह देवोंके दास नहीं रहता -- वह उनका दास नहीं है ।
तब तो केवल परम पुरुष ही वस्तुनिष्ठ है ।
बिलकुल ठीक, तुमने ठीक बात कही है, वत्स । ठीक ऐसा ही है ।
अगर वस्तुनिष्ठताका अर्थ किया जाय ''वास्तविक स्वतंत्र अस्तित्व'' ओह! सत्य, स्वयंभू -- तो परम पुरुषके सिवाय कुछ भी नहीं हैं ।
फिर भी इस पूर्ण वस्तुनिष्ठताके बारेमें कोई चीज परेशान करनेवाली है ।
ओह ! क्यों ?
हमें आश्चर्य होता है कि आखिर वास्तविक है क्या? हमें किसके साथ सचमुच पाला पड़ता है? क्या सब कुछ कल्पना- का ताना-कना नहीं है? यह जरा परेशान करनेवाली बातें हैं ?
लेकिन जब परम पुरुषके एक और एकमात्र अस्तित्वका निश्चयात्मक अनु-
३५ भव हो और यह मालूम हों जाय कि सब कुछ अपने सा थ ही खेलनेवाले परम पुरुष ही है तो यह अनुभूति परेशान करनेवाली, अप्रिय या कष्टकर न रहकर, इसके विपरीत, एक प्रकारकी संपूर्ण सुरक्षा बन जाती है ।
एकमात्र सद्वस्तु हैं परम पुरुष और यह सब वही हैं जो अपने साथ खेल रहे हैं । मैं तो इससे उल्टी दृष्टिकी अपेक्षा इसे बहुत आrधक सांत्वना देनेवाली बात मानती हू ।
और फिर, यही एकमात्र निश्चिति है कि यह सब एक दिन अद्भुत वस्तु बन जायगा अन्यथा...
और यह भी उस स्थितिपर निर्भर है जिसे तुम स्वीकार करते हों । शायद शुरूमें, अच्छी तरह खेलनेके लिये यह जरूरी है कि खेलके साथ, खेलके रूपमें, स्वयंभू और स्वतंत्र वस्तुके रूपमें, पूर्ण तादात्म्य आवश्यक है । लेकिन एक ऐसा क्षण होता है जब मनुष्य ठीक उस वैराग्यतक जा पहुंचता है और अस्तित्वके मिथ्यात्वके लिये ऐसी घृणा-सी हों जाती है कि उसे प्रभुको अपने अंदर, अपने लिये आंतरिक लीलाके रूपमें न देखे तो वह असह्य हो उठता है । और तब तुम उस निरपेक्ष और संपूर्ण स्वाधीनताका अनुभव करते हो जो अधिक-से-अधिक अद्भुत संभावनाओंको यथार्थ बनाती है, और: जौ सभी कल्पनीय उदात्ता चीजोंको प्राप्त कर सकती है ।
(माताजी ध्यानमें चली जाती हैं)
तुम देखोगे कि एक ऐसा समय होता है जब यदि तुम यह वृत्ति न अपनाओ कि प्रभु ही सब कुछ है तब अपने-आपको या जीवनको सह पाना असंभव हो जाता है । देखो, हमारे इन प्रभुमें कितनी चीजें है, वे इन सबके साथ खेलते है -- वे खेलते है, अपनी स्थिति बदल-बदलकर खेलते हैं । इसलिये, जब तुम यह समग्रता देखते हों, यूह सब, तुम्हारे अंदर असीम आश्चर्यके भाव आता है, तुम्हें लगता है कि तुम्हारी अभीप्साके अद्भुत लक्ष्य बिलकुल संभव हैं, बल्कि उनके भी आगे जाया जा सकता है । तब तुम्हें सांत्वना मिलती है अन्यथा अस्तित्व... सांत्वनासे परे शोकाकुल रहता हैं । लेकिन इस भांति वह मोहक हो जाता है । मैं किसी दिन तुम्हें इसके बारेमें बताऊंगी ।
जब तुम्हें जीवनकी अवास्तविकताका अनुभव होता है -- एक ऐसी वास्तविकता या सद्वस्तु तुलनामें अवास्तविक जो निश्चय ही परे, उपर होनेके साथ-ही-साथ जीवनके ''भीतर'' भी है, तो उस क्षण... हाल!
आखिर यह तो सत्य है -- आखिर यह तो सत्य है और सत्य होनेका अधिकारी है । यह समस्त संभव भव्यताओं, समस्त संभव आश्चर्य, समस्त संभव आनंद, हां, समस्त संभव सौंदर्य, फिर मी यह, अन्यथा...
मैं यहां आ पहुंची हू ।
और फिर, मुझे लगता है मानों मेरा एक पांव यहां है, एक पांव वहां है -- और यह बहुत सुखद स्थिति नहीं है, क्योंकि... क्योंकि, तब यह इच्छा होती है कि बस एक तत् के सिवाय और कुछ न हों ।
स्थितिकी वर्तमान अवस्था भूतकालीन है जिसे अब न रहना चाहिये । जब कि दूसरी, हाश ! आखिर! आखिर! इसीके लिये तो यह संसार बना है ।
और हर चीज वैसी ही ठोस और वैसी ही वास्तविक बनी रहती है, सब कुछ धुआं नहीं हों जाता! वह उतनी ही ठोस और उतनी ही वास्तविक बनी रहती है... क्योंकि... वह दिव्य बन जाती है, क्योंकि,... क्योंकि वह भगवान् ही ''है''; वह लीलामय भगवान् है ।
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